फ्रांस के रेन ऑफ टेरर का दौर और भारत में 2014 का सत्ता परिवर्तन

  • 2011 के इंडिया अगेंस्ट करप्शन आन्दोलन के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इन्कम्बेंट कांग्रेस 44 सीट पर सिमट गई थी
  • अन्ना हजारे के करप्शन के खिलाफ आन्दोलन को देशव्यापी समर्थन मिला था, भाजपा के शासन में अन्ना नहीं दिखे एक्टिव
  • रेवल्यूशन के बाद फ्रांस बना था रिपब्लिक, जैकोबियन्स ने डेमोक्रेसी स्थापित करने के बहाने कन्ट्रोल की नीतियां लागू की
  • आन्दोलनों से रिपब्लिक बने फ्रांस में गवर्नमेंट ने लगाए थे कड़े प्रतिबंध, भाजपा की 10 वर्षाें के कार्यकाल में यह पैटर्न दिखा
Source : Wikipedia

वर्ष 2011 में करप्शन अर्थात भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में एक लहर चली। दिल्ली में वर्ष 2010 में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स का घोटाला, टू-जी स्पैक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला, निर्भया कांड आदि से तत्कालीन भारत सरकार की छवि को ऐसा नुकसान हुआ कि 2014 के जनरल इलेक्शन से एक बड़ा सत्ता परिवर्तन देश को देखने को मिला। दक्षिणपंथ विचारों की हिमायती भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। इसके पांच साल बाद, 2019 में एक बार फिर भाजपा के पक्ष में मैंडेट गया व लगातार दूसरी बार नरेन्द्र मोदी बहुमत की सरकार बनाने के साथ ही भारत के प्रधानमंत्री बने। यहां समझने की बात यह है कि कभी भी 200 का आंकड़ा न छू पाने वाली भाजपा को आखिर इतने बड़े जनादेश के मिलने के क्या कारण रहे!

हिस्ट्री में जाएं तो अन्ना हजारे के आन्दोलन ने देश में भाजपा की सरकार आने के रास्ते खोले थे, यानी कि भाजपा की सरकार आन्दोलन से निकली सरकार थी। भ्रष्टाचार पर प्रहार और विकास की राह पर देश को अग्रसर करने के वादे को लोगों ने वोट दिया था। सरकार में आने के बाद भ्रष्टाचार को दूर करने की बात तो छोड़े जिस तरह लोकतांत्रिक मूल्यों का पतन हुआ है यह किसी से छिपा नहीं है। देश का बुद्धिजीवी वर्ग मानता है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रही भाजपा सरकार कन्ट्रोल की नीति अपनाए हुए है। मीडिया, सरकारी एजेंसियां, विभिन्न संस्थाओं में अपने लोगों को बैठाकर लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन किया जा रहा है। नरेन्द्र मोदी की 10 वर्षाें की सरकार में फ्रांस के वर्ष 1793 से 1794 में चले रेन ऑफ टेरर (आतंक का शासन) का पैटर्न देखने को मिलता है। फ्रांस में भी सत्ता परिवर्तन आन्दोलनों के बाद हुआ था। वर्ष 2014 में दो बार की कांग्रेस सरकार को आन्दोलनों के बल पर ही हराकर भाजपा, सरकार बनाने में कामयाब हो पाई थी।

फ्रांस में महंगाई, भ्रष्टाचार और अमीर-गरीब के लगातार बढ़ते फर्क से त्रस्त जनता में वर्ष 1789 आते-आते समान अधिकारों के लिए एक बड़ा डिस्कोर्स शुरू हो गया था। खासकर थर्ड इस्टेट के नागरिकों में सत्ता के खिलाफ क्रोध पनप रहा था। इस वर्ष जुलाई की गर्मियों में विरोध की आग ऐसी भड़की कि देश में सबसे नीचे के पायदान में गिनी जाने वाली जनता ने राजा लुई-सोलहवें को आंखें दिखानी शुरू कर दी। राजा के खिलाफ इस कदर गुस्सा फूटा कि जिस जेल के नाम से लाेग थर-थर कांप जाते थे, उसपर हमला कर दिया गया। जेल अधिकारी को मारकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया।

देशभर में राजशाही के खिलाफ आन्दोलनों ने जोर पकड़ना शुरू कर दिया था। पांच मई 1789 में राजा द्वारा बुलाई इस्टेट्स जनरल्स की मीटिंग का बहिष्कार कर थर्ड इस्टेट के लोगों ने जिसमें किसान, शिल्पकार, मजदूर व अन्य गरीब तबके के नागरिक शामिल थे ने खुद ही नेशनल असेंबली बना दी। फ्यूडल सिस्टम में जन्मसिद्ध प्रिविलेजिज का आनंद लेने वाले फर्स्ट इस्टेट के क्लर्जी (पुरोहित वर्ग), सेकंड इस्टेट के नोबल्स की थर्ड इस्टेट के लोगों पर मनमानी खत्म होने की शुरूआत हो चुकी थी।

वर्ष 1791 आते-आते राजा पर इतना दबाव बना कि नेशनल असेंबली के बनाए संविधान को एसेप्ट कर लिया गया। राजा की शक्तियां कम कर दी गई थीं। फ्रांस ने कॉन्शिट्यूश्नल मोनार्की की राह अपनाई। ज्यूडिशरी, एक्जिकेयटिव और लेजिस्लेचर की व्यवस्था बनाई गई। द डिक्लेरेशन आॅफ राइट्स आॅफ मैन एंड सिटिजन्स के प्रावधानों के अनुसार शासन शुरू हुआ। बोलने की आजादी, मन का काम करने व प्रॉपर्टी राइट् व अन्य अधिकार कॉन्शटिट्यशन ने जनता को प्रदान किए।

नागरिकों के अधिकारों में इजाफा हुआ तो विभिन्न पॉलिटिकल क्लब अस्तित्व में आए। महिलाओं ने भी ऐसे क्लबों में भागीदारी सुनिश्चित की, वुमन ओनली क्लब भी शुरू हुए। वर्ष 1792 में एक बार फिर विद्रोह पनपा, इस बार देश के सबसे प्रतिष्ठित पॉलिटिकल क्लब जैकोबिन ने पेरिस के नागरिकाें में महंगाई व अन्य मुद्दों के खिलाफ नाराजगी को भुनाते हुए राजा के खिलाफ बगावत कर दी। राजा को कैद कर लिया गया। देश में एक बार फिर चुनाव हुए। चुनी गई नई असेंबली को नेशनल कन्वेंशन का नाम दिया गया। कन्वेंशन ने राजशाही को पूरी तरह खत्म कर फ्रांस को रिपब्लिक घोषित कर दिया। यानी कि अब नागरिक सीधे देश की सरकार और सरकार के मुखिया का चुनाव कर सकते थे। राजा को राजद्रोह के आरोप में मौत की सजा सुनाई गई, 21 जून 1793 को सार्वजनिक तौर पर राजा को गुलोटाइन कर दिया था।

राजशाही के खिलाफ बड़ी क्रांति करने वाले जेकोबियन क्लब के लीडर मैक्सिमिलियन रोबेस्पिएर, फ्रांस की नेशनल कन्वेंशन के डेप्युटी घोषित हुए। आन्दोलन से देश की सत्ता तक पहुंचें रोबेस्पिएर ने शुरू से ही कन्ट्रोल की नीति अपनाई। जिसने विरोध किया उसे मरवा दिया गया, यह सब कानून के अनुसार किया जा रहा था। बेशक, देश में इन नीतियों के खिलाफ दबा विरोध था, खुद रोबेस्पिएर के नजदीकी उसकी नीतियों को नापसंद कर रहे थे। सात फरवरी 1794 को रोबेस्पिएर ने नेशनल कन्वेंशन में अपनी नीतियों को लेकर एक भाषण दिया। इसे उस समय के अखबार ‘ले मोनिटूर यूनिर्वसेल’ ने छापा था। भाषण की कुछ पंक्तियां नीचे दी गई हैं…

“मजबूत लोकतंत्र और कानून के राज के लिए स्वाधीनता (लिबर्टी) के संघर्ष में तेजी लानी होगी। निरंकुश शासन को खत्म खत्म करना होगा। गणतंत्र (रिपब्लिक) के बाहरी और भीतरी दुश्मनों का विनाश अति आवश्यक है। क्रांति के समय में लोकतांत्रिक सरकार को डर (टेरर) के माहौल का सहारा भी लेना पड़ता है। यह टेरर कुछ और नहीं बल्कि न्याय दिलाने के लिए सुगमता के रास्ते का प्रतिरूप है, पितृभूमि की आवश्यक जरूरतों को पूरा करने का साधन है। स्वाधीनता के दुश्मनों के खात्मे के लिए रिपब्लिक के संस्थापकों को टेरर के इस्तेमाल का अधिकार है।”

दिमाग को थोड़ा पीछे लेकर जाएं। आठ नवंबर 2016 एकाएक सुप्रीम लीडर की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश के सभी न्यूज चैनल्स पर रात के समय लाइव आते हैं। एक झटके में देश की अर्थव्यवस्था से पांच सौ और एक हजार के नोट को बाहर कर दिया जाता है। अगले ही दिन से बैंकों के बाहर लंबी कतारें और परेशान चेहरों की तस्वीरें, इस बेतुके डिसिजन से आपको हुई परेशानी याद करें। इससे कोई परिणाम निकला यह भी याद करें। देश को कोई फायदा हुआ, सोंचें। फिर नोटबंदी के बीच जब विरोध शुरू हुआ तो राष्ट्र के नाम संदेश याद करें… काले धन पर प्रहार है। प्रधनमंत्री कहते हैं मुझे बस 50 दिन दें ,अगर कोई मेरी कमी रह जाए, कोई मेरी गलती निकल जाए, कोई मेरा गलत इरादा निकल जाए, देश जो सजा करेगा भुगतने के लिए तैयार हूँ………अब जितना पीछे गए हैं उसमें चार साल आगे आ जाएं। 2020 की महामारी और एकाएक फिर न्यूज चैनल्स पर प्रकट हो जाना। संपूर्ण लॉकडाउन का ऐलान और अगले ही दिन से परेशानी की शुरूआत। एक ही सप्ताह में सारे इंतजामों की पोल माइग्रेंट वर्कर्स जोकि हमारे आलीशान शहरों को सुंदर बनाते हैं कि दयनीय स्थिति खोल कर रख देती है। एक-एक हजार किलोमीटर का सफर बच्चों सहित पैदल करते इन लोगों की तस्वीरें किसी से छिपी नहीं हैं। फिर पुलिस का इन पैदल चल रहे गरीबों पर लाठी बरसाना याद करें। सबकुछ राष्ट्र के हित में किया जा रहा था। धूप में तपते इन लोगों के बीच हम घर बैठे ताली-थाली बजा रहे थे, दीये जला रहे थे…

Source : Live Law…कोविड-19 के बीच देशभर में अचानक लगा दिए गए लॉकडाउन में माइग्रेंट वर्कर्स की स्थिति दयनीय हो गई थी। खाने-पीने के लाले पड़ने पर पैदल की हजारों किलोमीटर का सफर बच्चों समेत श्रमिकों ने किया।

रोबेस्पिएर के रेन ऑफ टेटर के दौरान 1793 में क्रांतिकारी पत्रकार कैमिले डेशमोलिन्स ने अमानवीय शासन के विरुद्ध लोगों को जागरूक करने का काम किया। उन्होंने आजादी (लिबर्टी) को लेकर एक भावपूर्ण संदेश लिखा….

“कुछ लोगों का मानना है कि लिबर्टी एक छोटे बच्चे की तरह है, जिसे परिपवक्क होने के लिए कड़े अनुशसन के दौर से गुजरना जरूरी है। जबकि इसकी प्रकृति इस विचार के बिल्कुल उलट है। लिबर्टी या आजादी…दबाव नहीं खुशी का पैगाम है, समानता का अधिकार है, न्याय सुनश्चित करना है, तर्कशीलता है…जोकि डेक्लेरेशन ऑफ राइट्स ऑफ मैन एंड सिटिजन्स में निहित है। अपने सभी राजनीतिक विरोधियों को गुलोटाइन (एक यंत्र जोकि दो पोल और एक तेजधार ब्लेड से लैस होता है। दोनों पोल के बीच सर रखवाकर ऊपर से तेजधार ब्लेड गिराकर सर को धड़ से अलग कर दिया जाता है। ) करवाना सबसे मूर्खता भरा फैसला है। किसी एक विरोधी को मरवाकर इसके बदले दस दुश्मनों को दोस्त में तब्दील नहीं कराया जा सकता।”…

कैमिले डेशमोलिन्स

पत्रकार डेशमोलिन्स को इस लेख के कुछ दिनों बाद गुलोटाइन कर दिया था।

रेन ऑफ टेरर और भाजपा का विरोधी दलों पर हमला
2024 के जनरल इलेक्शन के शुरू होने से पूर्व ही प्रतिद्वंदी राजनीतिक दलों पर जिस तरह ईडी, सीबीआई एवं आईटी रेड डाली गई यह रोबेस्पिएर के रेन ऑफ टेरर के पैटर्न को दर्शाता है। विरोधी दलों के नेताओं को जेल में डाल खुद के लिए नरेन्द्र मोदी एक बार फिर सत्ता का रास्ता प्रशस्त करने में लगे हुए हैं। चुनाव के समय शक्तियों से लैस होने वाली संस्था चुनाव आयोग को पार्लियामेंट में एक एक्ट पास कराकर नरेन्द्र मोदी पंगु बना चुके हैं।

2:1 का ऐसा फार्मूला बनाया कि चुनाव आयोग के मुखिया के चयन मे हमेशा सरकार की ही बात आगे रहेगी। मुखिया के चयन के लिए बनने वाली समिति में प्रधानमंत्री, कैबिनेट मंत्री और एक लीडर ऑफ अपोजिशन होंगे। जबकि मार्च 2023 में सुप्रीम कोर्ट की कांस्टीट्यूशन बेंच के आदेश के अनुसार प्रधानमंत्री, लीडर ऑफ अपोजिशन और मुख्य न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति की सलाह पर राष्ट्रपति, मुख्य चुनाव अधिकारी को नियुक्त करते। इस आदेश को संसद में नया कानून पास कर समिति में मुख्य न्यायाधीश की जगह एक कैबिनेट मिनिस्टर को जगह दे दी गई है। अब यह रॉकेट साइंस नहीं है कि किस नीति के तहत मजबूत चुनाव आयोग बनता होगा, और इसमें बदलाव करने की नरेन्द्र मोदी की मंशा क्या रही होगी। कुछ उसी तरह कार्य किया जा रहा है जैसा फ्रांस के रेन ऑफ टेरर के दौरान रोबेस्पिएर कर रहा था, सारी शक्तियां खुद के हाथों में सौंपना।

अच्छे पत्रकारों को जेल, मेनस्ट्रीम मीडिया पर सिर्फ मोदी-मोदी
सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी के खाते चुनाव से ऐन पहले सीज कर दिए गए। बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी को कम्युनल लाइन पर बदनाम किया जा रहा है। जिसमें खरीदी हुई मेनस्ट्रीम मीडिया साथ दे रही है। किसी तरह का लेवल प्लेइंग फील्ड नहीं छोड़ा जा रहा। आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं को जेल में डाल दिया गया। झारखंड में आदिवासी समुदाय के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर ईडी का छापा, अरेस्ट सत्ता में बैठे नरेन्द्र मोदी की निरंकुशता को दर्शता है। इसी बीच 19 अप्रैल का पहले चरण मतदान शुरू हो गया। पूरी मेनस्ट्रीम मीडिया मोदी के पक्ष में नैरेटिव गढ़ती है। अच्छे पत्रकारों को जेल भेज दिया गया है या अखबारों और चैनलों से निकलवा दिया गया है। इंटरनेट स्पेस पर निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों के अकाउंट बंद करा दिए जा रहे हैं। उन पर मुकदमें दर्जकर डराया जाता है।। करैक्टर एसिसनेशन किया जा रहा है।

केरल के पत्रकार सिद्दिक कप्पन को अक्टूबर 2020 में एक दलित लड़की के बलात्कार-मर्डर केस में उत्तर प्रदेश के हाथरस रिपोर्टिंग पर जाते हुए बीच रास्ते से गिरफ्तार कर लिया गया। यूपी सरकार ने उनपर यूएपीए लगा दिया। दो वर्ष से ज्यादा का समय उन्होंने जेल में काटा, जिसके बाद उन्हें जमानत मिली।

2014 में सबका साथ सबका विकास का नारा और इस चुनाव में हिंदू-मुस्लिम का कार्ड
अन्ना आन्दोलन से मिले फायदे और खुद महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी को आन्दोलनों के जरिए देशभर में मुद्दे बनाकर 2014 में सरकार बनाने वाली भाजपा चुनाव आते-आते हिन्दू-मुस्लिम के बीच दरार बढ़ा वोट बटोरने से गुरेज नहीं करते। कांग्रेस ने न्याय पत्र के नाम से मेनिफेस्टो निकाला, जिसमें महंगाई, बेरोजगारी, कृषि और कम्युनल हारमनी को लेकर प्रमुखता से बातें लिखी गई हैं। करीब 48 पेज के डॉक्यूमेंट में कहीं किसी जाति, क्षेत्र अथवा मजहब का तुष्टीकरण या उन्हें कुछ ज्यादा तवज्जो देने की बात नहीं कही गई है। इसके बावजूद सिर्फ पोलराइजेशन करने के लिए प्रधानमंत्री अपने भाषण में कह देते हैं कि कांग्रेस का मेनिफेस्टो, मुस्लिम लीग के घोषणा पत्र की याद दिलाता है।

सबका साथ, सबका विकास का नारा कहीं चर्चित नहीं किया जा रहा। विकास का मुद्दा गायब है। राम-मन्दिर जिसे सरकार के तौर पर भाजपा कहते नहीं थकती कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला है जिससे मंदिर बनने का रास्ता प्रशस्त हुआ, रैलियों में भाजपा ने किया अपना वादा पूरा, बनवाया राम-मंदिर का संदेश देती रहती है। जबकि, आचार-संहिता के नियमों के अनुसार मंदिर-मस्जिद, रिलिजस सिंबल्स के जरिए चुनाव प्रचार नहीं किया जा सकता। लेकिन, मुख्य चुनाव अधिकारी जोकि विपक्ष के एक वोट के बदले सरकार के दो वोट से बने हैं, भाजपा के चुनाव प्रचार पर आंखें मूंदे हुए हैं। वहीं, देश के करीब-करीब 140 करोड़ की जनसंख्या के प्रधानमंत्री चुनाव जीतने के लिए करीब 20 करोड़ मुसलमानों के प्रति अपने भाषणों से ऐसा माहौल तैयार कर देते हैं कि एक आम मुसलमान पल-पल चुनाव के दिनों के दौरान सलामती से घर लौटने की दुआ के साथ सुबह काम पर निकलता है।


अन्ना का आन्दोलन करप्शन फ्री की बजाए कांग्रेस फ्री के लिए हुआ
अन्ना हजारे आन्दोलन जोकि देश को करप्शन फ्री बनाने के लिए किया गया था, जानकारों के अनुसार इस आन्दोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से समर्थन ही नहीं था बल्कि इसे पर्दे के पीछे रचा ही आरएसएस ने था। अन्ना हजारे के करीबी रहे पत्रकार राजू परुलेकर के अनुसार अन्ना आन्दोलन एक साजिश थी। टीम अन्ना सिर्फ नाम मात्र थी। अन्ना हजारे को प्यादे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। आन्दोलन को चला अरविन्द केजरीवाल रहे थे। यहां यह भी बता दें कि राजू परुलेकर जाने-माने पत्रकार हैं, अंग्रेजी व हिन्दी में कई किताबें उनकी पब्लिश हो चुकी हैं। महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले राजू परुलेकर राज्यस्तरीय अवार्ड से पुरस्कृत हो चुके हैं। अन्ना आन्दोलन के दौरान अन्ना हजारे के ब्लाॅगर थे। अन्ना आन्दोलन के दौरान ही उन्होंने आन्दोलन में शामिल कई बड़े लोगों की मंशा पर सवाल खड़े किए थे।

अन्ना आन्दोलन की एक प्रमुख मांग जनलोकपाल की नियुक्ति की थी। इस लोकपाल को एक ऐसी व्यवस्था के तौर पर मीडिया, नई-नई ट्रेंड में आई सोशल मीडिया और इस आन्दोलन में शामिल लोगों ने इस तरह प्रचारित किया कि देश से करप्शन खत्म करने का सबसे कारगर और इकलौता माध्यम यही है। अन्ना हजारे ने भूख हड़ताल की। बड़े-बड़े सामाजिक कार्यकर्ता, एक्स सिविल सर्विस अधिकारी, फिल्म अभिनेता दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में अन्ना हजारे को समर्थन देने पहुंचे।

लगभग सभी राज्यों में छोटे-मोटे धरने देकर स्टूडेंट, नौकरीपेशा, महिलाओं यहां तक कि सरकारी कर्मचारियों तक ने आन्दोलन को समर्थन दिया। आन्दोलन के पक्ष में सभी मीडिया हाउस ने नैरेटिव बनाया। आन्दोलन ने ऐसी मजबूती पकड़ी की तत्कालीन यूएपी सरकार जिसमें कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी ने पार्लियामेंट में डिस्कशन रखा। विपक्षियों ने घेरा। लेकिन, इन सब के बावजूद तत्कालीन सरकार ने अन्ना हजारे के कैरेक्टर के ऊपर कोई बात नहीं कही, विपक्षी दलों के नेताओं पर सरकारी एजेंसियों से रेड नहीं कराई।

आन्दोलन और नरेन्द्र मोदी की लॉन्चिंग
अन्ना आन्दोलन के बीच आरएसएस-भाजपा ने गुजरात दंगों के आरोपी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को देश में विकास के चेहरे के तौर पर लॉन्च किया। गुजरात मॉडल का नैरेटिव गढ़ा गया। गुजरात को एक मॉडल स्टेट बताकर मीडिया के जरिए प्रचारित किया गया। मीडिया ने जिस तरह से भाजपा, नरेन्द्र मोदी की छवि गढ़ी, 2013 आते-आते तत्कालीन भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राजनाथ सिंह ने प्रधानमंत्री के चेहरे के लिए नरेन्द्र मोदी के नाम की घोषणा कर दी।

इन सबके पीछे इमोशनल कार्ड खेला गया। नरेन्द्र मोदी को गरीब घर का बेटा, चाय बेचने वाला और अभावों से निकल गुजरात का मुख्यमंत्री बनने की कहानियां गढ़ी गई। गुजरात को देश का नंबर-1 स्टेट बताकर मीडिया में पेड प्रमोशन कराए गए। कांग्रेस शासित प्रदेशों में करप्शन आदि की मार को लेकर मीडिया ने खूब खबरें बनाई। गुजरात को स्वर्ग की तरह चमकता हुआ दिखाया जाने लगा। इन सबके बल पर 2014 में नरेन्द्र मोदी ने जबरदस्त मैंडेट के साथ प्रधानमंत्री पद के पर शपथ ग्रहण की। वहीं, कांग्रेस, राहुल गांधी, मनमोहन सिंह की छवि इतनी खराब की जा चुकी थी कि महज 44 सीट पर देश की सबसे पुरानी पार्टी सिमट कर रह गई।

अन्ना के आन्दोलन ने देश में बोए फासीवाद के बीज : राजू परुलेकर
राजू परुलेकर कहते हैं कि देश में फासीवाद के बीज इंडिया अगेंस्ट करप्शन आन्दोलन जिसे अन्ना आन्दोलन के रूप में हम जानते हैं ने बोए थे। आज जो पत्रकार कह रहे हैं कि फासीवादी ताकतें मजबूत हो रहीं हैं। पत्रकारिता का स्तर गिर रहा है, वह उस वक्त अन्ना आन्दोलन से मंत्रमुग्ध थे, पुण्य प्रसून जोशी का नाम लेकर कहते हैं कि आन्दोलन के वक्त वेलेंटाइन डे पर भगत सिंह की जयंती मना कर अरविंद केजरीवाल की छवि सुधारने में लगे थे।

आशुतोष ने तो लाइव कार्यक्रम में मुझे ही झूठा कह दिया था। रवीश-कुमार और राजदीप सरदेसाई जैसे पत्रकार भी आन्दोलन के दीवाने थे। राजू परुलेकर तो यहां तक आरोप लगाते हैं कि जो काम मोदी आने के बाद गोदी मीडिया कर रही है यही काम ये पत्रकार अन्ना आन्दोलन के समय अरविंद केजरीवाल के लिए कर रहे थे। श्वेता सिंह जैसी एंकर, मुझे बतौर पेनलिस्ट बुलाती और मेरी बात खत्म होने से पहले कुमार विश्वास बोलना शुरू हो जाता।

ट्रोलिंग पर राजू परुलेकर खुलासा करते हैं कि आज लोग मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी ने ट्रॉलिंग की शुरुआत की थी। लोगों को ट्रोल करके उनकी छवि खराब करने का काम सबसे पहले अन्ना आन्दोलन के समय अरविंद केजरीवाल और उसके परिवर्तन संगठन के लोगों ने किया था। संघ परिवार या भाजपा का इतिहास रहा है कि उन्होंने कभी कोई ओरिजनल आइडिया को आगे नहीं बढ़ाया है। ट्रोलिंग करना, आईटी सेल बनाना, सोशल मीडिया पर नैरेटिव गढ़ने का काम अरविंद केजरीवाल की शुरुआत है।


आरएसएस की राह पर अरविंद केजरीवाल, मानवाधिकार के प्रति नहीं सहानुभूति
जब पूरे देश में अन्ना हजारे और भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन की गूंज थी, तब चुनिंदा लोग जो इस आन्दोलन के खिलाफ बोल रहे थे उनमें बड़ा नाम राजू परुलेकर रहे। वह बताते हैं कि बेशक देश में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन सारा प्रशासन अरविंद केजरीवाल की मदद कर रहा था। केजरीवाल के खिलाफ एक एफआइआर तक दर्ज नहीं की जा रही थी। वह आरोप लगाते हैं कि केजरीवाल ने पंजाब में तो बाद में महात्मा गांधी से दूरी बनाई (यह बात वह पंजाब में सरकार बनाने के बाद भाषण देते हुए भगत सिंह और बीआर अंबेडकर के फोटो के साथ महात्मा गांधी का फोटो न लगाने पर कह रहे हैं) इससे पहले वह अन्ना आन्दोलन में ऐसा कर चुके थे।

अन्ना आन्दोलन की शुरुआत में आरएसएस की ही लाइन पर अन्ना के बैकग्राउंड में फोटो लगाई गई। भारत माता के हाथ में भगवा झंडा की बजाए तिरंगा झंडे का ही फर्क रखा। जब बाद में थोड़ा विरोध हुआ तो मुख्य धरना स्थल पर महात्मा गांधी की फोटो लगाई। अरविंद केजरीवाल को मानवाधिकार के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है ऐसा होता तो कश्मीर से धारा-370 हटाने और एनआरसी के विरोध में होते, लेकिन आज तक उन्होंने यह मुद्​दे छेड़े नहीं हैं। लालू यादव ने तो मेरा नाम लेकर संसद में अरविंद केजरीवाल के खिलाफ बोला था, लेकिन कांग्रेस कुछ नहीं कर सकी।

राजू परुलेकर

राजू परुलेकर दावा करते हैं कि खुद अन्ना हजारे, इंडिया अगेंस्ट करप्शन के खिलाफ हो गए थे। लेकिन, उनकी हिम्मत नहीं थी ऐसा कहने की, वह कहना शुरू कर चुके थे कि यह आन्दोलन गैंग ऑफ फोर हो गया है। तब उन्होंने मुझे ब्लॉग लिखने को कहा था। लेकिन बाद में पलट गए। मेरी किस्मत अच्छी थी कि वह इकलौता ब्लॉग था जिसे उन्होंने खुद लिखा था, और अपने साइन किए थे, वर्ना आन्दोलन बदनाम करने की साजिश का आरोप मुझ पर लगा दिया जाता।

अन्ना आन्दोलन ने देश की उम्मीद छिनी
कांग्रेस के शासन के दौरान दो आन्दोलन आरएसएस ने किए। पहला 70 के दशक का जेपी आन्दोलन और दूसरा 2011 का इंडिया अगेंस्ट करप्शन यानी कि अन्ना आन्दोलन। 2011 में सभी बाबा और महाराज जुड़ गए। रामदेव, श्रीश्री रविशंकर और भी कई। आन्दोलन में सक्रिय रहे प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव इससे अलग हो गए क्योंकि वह जान गए थे कि जो दिख रहा है वैसा नहीं है। अरविंद केजरीवाल तो चाहते थे कि अन्ना हजारे की भूख हड़ताल पर शहादत हो जाए और उसपर देश की सत्ता में बैठा जाए। वह छोटा आरएसएस की तरह बिहेव कर रहे थे।

अन्ना आन्दोलन ने हमारी आजादी छीन ली, इससे बड़ी बात देश के लोगों की उम्मीद छीन ली। इतने बड़े स्तर पर अन्याय किया जा रहा है लेकिन कहीं आवाज नहीं उठती है। यह कांग्रेस की कमी रही। वह सरकार में रहते हुए आन्दोलन के पीछे की ताकतों को नहीं जान पाए। आन्दोलन की मंशा तक को लोगों तक नहीं पहुंचा पाए। कांग्रेस की आलाकमान को मालूम ही नहीं था क्या चल रहा है कैसे इससे निपटा जाए। आज आलम यह है कि कॉरपोरेट, सरकार और, धर्म को आरएसएस ने मिला दिया है। इस तरह का फासिज्म सबसे बुरा होता है।

आरएसएस-भाजपा ने कभी अपना एजेंडा नहीं छुपाया है। उन्होंने कहा था गाय को माता मानेंगे, हिटलर और मुसोलिनी के विचारों से वह प्रभावित रहे। लेकिन, उन्होंने प्यादे आगे किए। जनलोकपाल भी मनुस्मृति थी। कोई तो उसको हैंडल करता। संविधान के ऊपर जनलोकपाल की बात कही जा रही थी। आज संविधान बचाने की बात चल रही है। इस आन्दोलन ने 70 वर्षों में जो देश बना उसे बर्बादी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया।

आरएसएस कभी शॉर्ट स्ट्रेटेजी लेकर नहीं चलती। अरविंद केजरीवाल तो इस स्ट्रेटेजी के बीच का एक एरेंजमेंट थे। जहां तक प्रधानमंत्री का आंदोलन जीवी कहने की बात है जिन मुद्दों पर वह विपक्ष में होकर विरोध करते थे उन्हीं पर काम किया। जीएसटी का विरोध करते थे, उसे लागू किया। मनरेगा को कोसते थे, सबसे ज्यादा फंड मनरेगा को दिया। उनकी करनी और कथनी में अंतर होता है। यह आरएसएस का कल्चर है। वह वही काम करते हैं जिन्हें वह करना चाहते हैं। एक ग्रैंड स्ट्रेटजी के तहत अन्ना आन्दोलन खड़ा किया गया, सरकार को बदला गया, आज भाजपा का रेन ऑफ टेरर चला हुआ है। 2024 में इस रेन ऑफ टेरर का एक्सटेंशन करने की पूरी तैयारी विपक्ष को डरा-धमकाकर, जेल में डालकर, खाते सीज करके की जा रही है। अन्ना जैसे प्यादे सो रहे हैं।

KS Mobein


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